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प्रश्न और उत्तर
१९५८
१ जनवरी, १९५८
हे पार्थिव माता, प्रकृति, तूने कहा है कि तू सहयोग देगी, और तेरे इस सहयोगकी श्री-शोभा और महिमाका कोई ओर- छोर नहीं ।
( १ जनवरी, १९५८ का सन्देश)
मधुर मां, क्या आप इस सालके संदेशको समझायेंगी?
इसका स्पष्टीकरण. किया जा चुका है! यह लिखा जा चुका है, २१ फरवरी- के बुलेटिनमें छपनेके लिये तैयार है ।
इसमें समझानेकी बात कुछ नही है । यह ते। एक अनुभूति है, कुछ ऐसी बात जो घटी थी ओर जब घटी तभी मैंने उसे लिख लिया था । संयोगकी बात है कि यह ठीक उसी समय हुआ जब मुझे याद आया कि इस सालके लिये मुझे कुछ लिखना है (जो उस समय आनेवाला नया साल था जिसका आज पहला दिन है) । जब मुझे ख्याल आया कि मुझे कुछ लिखना था -- लिखनेके लिये नहीं, बल्कि साथ-ही-साथ - यह अनुभूति मी आयी, और जब मैंने इसे लिख डाला तब. एहसास हुआ कि... यह तो इसी वर्षके लिये संदेश है । '
(मौन)
निम्न लेखांश २१ फरवरी, १ ९'१८ के बुलेटिनमें दी गयी व्याख्या है :
( ३० अक्तुबर, ११५७ की) अपनी एक क्लासमें मैंने प्रकृतिका, अव्यय सिरजनहारी प्रकृतिकी, अपार प्रचुरताका जिक्र किया था ना सदा नये -नये समवायोके किये आकारोंके पूरे समुहको मिलाती है, फिर अलग करती है, दुबारा गढ़ती है, उन्हें बना ती है, बिगड़ती है और नष्ट कर देती है । मैंने बताया था कि यह एक बहुत बड़ा कड़ाहा है । तुम इसे चलाओ तो कुछ-न-कुछ निकल आयगा । यदि वह ठीक न हो तो उसे उसीमें फेंक दे और कोई दूसरी चीज निकाल लो । उसके लिये एक या दो या सौ रूपोंका कुछ महत्व नही है, वहां ते हज़ारों, लाखों रूप है और सा ल? साल
तो सैकड़ों, हज़ारों, लाखों - बेहिसाब है, उनका कोई महत्व नहीं, अनन्त काल है उसके सामने 1 स्पष्ट ही उसे इसमें मजा आता है, ओर उसे कोई उतावली नही । यदि तुम उसे चटपट कुछ कर डालनेको कहो तो हमेशा उसका एक ही जवाब होता है : ''पर किसलिये ऐसा करूं? आरिवर क्यों? क्या तुम्हें इसमें मजा नहीं आता? ''
जिस शाम मैंने तुम्हें, ये बातें बतायी थीं उसी शाम प्रकृतिके साथ मैंने अपना सर्वत: तादात्म्य किया था, उसकी लीलाके भीतर पैठ गयी थी । तादात्म्यकी इस क्रियाको प्रत्युत्तर मिला, - प्रकृति और मेरे बीच एक नयी प्रगाढ़ आस्तिकता पनपी, पास, और अधिक पास आते जानेकी एक दीर्घ प्रक्रिया - और इसकी चरम पराकाष्ठा, आयी नवम्बरकी अनुभूतिमें ।
एकाएक प्रकृतिको बोध हुआ । उसने समझ लिया कि जिस नयी चेतना- का जन्म हुआ है वह मुझे उठा फेंकनेपर उतारू नही, बल्कि अपनी 'मुजाओंमें भर लेनेका आतुर है । उसने समझ लिया कि यह नयी आध्यात्मिकता जीवनसे कन्नी नहीं काटती, उसकी गतिके दृढ विस्तारके सामने भयसे मैदान नहीं छोड़ती, इसके विपरीत, उसके सब पहलुओंको एक साथ लेकर चलना चाहती है । उसकी समझमें आ गया कि अतिमानसिक. चेतना उसे घटानेके लिये नहीं, पूर्ण बनानेके लिये उतरी है ।
और तब, परम सस्ते आदेश आया, ''उठ, आंखें रवोल, हे प्रकृति, सहयोगका आनन्द तेरे सामने है । '' और अचानक सारी प्रकृति आनन्दसे पुलकित हो उछल पडी और बोली, ''मुझे स्वीकार है । मैं साथ दूंगी ।'' और उसके साथ-ही-साथ आयी शान्ति और पूर्ण निस्तब्धता, ताकि देह- का यह आधार, प्रकृतिके आनन्दकी इस प्रबल बाढको जो मानों कृतज्ञता- का अनवरत प्रवाह थी, कुछ तोड बिना, कुछ खोये बिना ग्रहण कर सकें, अपनेमें समेट सकें । उसने स्वीकारा, अनन्त कालमें दूरतक निहारा कि यह अतिमानसिक चेतना उसे अधिक पूर्ण रूपसे संसिद्ध करेगी उसकी गतिको अधिक शक्ति प्रदान करेगी, उसकी लीलामें नये आयाम और नयी संभावनाएं जोड़ देगी ।
और अचानक ही मैंने सुने धरतीके हर कोनेसे आते हुए वे महागान जो हम कभी-कमी सूक्ष्म-भौतिक जगत्में सुनते है । कुछ-कुछ बीथोवेनकी संगीत-रचनाके समान थे वे । ऐसी तान जो प्रगति-अभियानके समय ही बजायी जाती है । लगा मानों प्रकृति और आत्माके इस नये संयमके आनन्दको, चिर बिछुड़े दो पुराने बंधुओके पुनर्मिलनके हर्षको व्यक्त करनेके लिये, एक भी सुर भंग किये बिना पचासों आर्केस्ट्रा एक साथ बज उठे हों । २३४ तब फूट पड़े ये शब्द. ''ओ पार्थिव माता, प्रकृति, तूने कहा है कि तू सहयोग देगी और इस सहयोगकी श्री-शोभा और महिमाका कोई ओर-छोर नहीं ।''
और इस श्री-शोभासे फूटता उल्लास पूर्ण शान्तिमें अनुभूत हुआ । और इस तरह हुआ इस नये वर्षके संदेशका उद्भव ।
पहली जनवरी, १९५८ की वार्ता जारी रहती है ।
मैं तुमसे एक बात कहना चाहूंगी : इस अनुभूतिका गलत अर्थ मत लगाना, यह कल्पना मत कर बैठना कि बस अब सब कुछ बिना किसी कठिनाईके, और हमारी निजी इच्छाओंके अनुरूप संपन्न होगा । यह इस लोककी बात नहीं है । इसका यह मतलब नहीं है कि जब हम वर्षा न चाहें तो वह नहीं बरसेगी! हम दुनियामें कोई घटना घटते देखना चाहे तो वह तुरन्त घट जायेगी, सारी-की-सारी कठिनाइयां ? बिला जायेंगी, सब कुछ परी -कथाओं जैसा होगा । नहीं, ऐसा नहीं है । इससे कहीं गहन बात है । जो नयी शक्ति अमिउयक्ति हो चुकी उसे प्रकृतिने अपनी शक्तियोंकी क्रीडामें स्वीकार कर लिया है, अपनी क्रियाओंमें इसे शामिल भी कर लिया है । ओर जैसा होता है, प्रकृतिकी गतियां ओर प्रयास ऐसे पैमानेपर होते है जो मनुष्यके मानदण्डसे अनन्त गुना बड़ा होता है और साधारण मानव चेतनाकी दृष्टिमें नहीं समाता । यह एक आंतरिक मनोवैज्ञानिक संभावना है जो धरापर उतरी है, धरतीके घटना-कर्मका कौतुकमय परिवर्तन नहीं है ।
मैं यह इसलिये बताये दे रही हू कि कही लोग यह माननेको न ललचा उठे कि धरतीपर परी-कथाएँ सत्य होने जा रही है । अभी उसका समय नहीं आया ।
( मौन)
चीजों कैसे घटती है यह जाननेके लिये चाहिये अतुल धैर्य, अति विशाल एवं व्यापक दृष्टि ।
( मौन)
जो चमत्कार होते है उन्हें शब्दशः चमत्कार इसलिये नहीं कहा जा सकता क्योंकि वे उस तरह नहीं घटते जैसे किस्से-कहानियोंसे हुआ करते हैं । वे चीजोंको देखनेकी बहुत गभीर दृष्टिको हीं दिखायी देते है -- अति गभीर, बहु-विस्तीर्ण, अपार दृष्टिको ।
( मौन)
भागवत कृपाकी क्रियाको पहचाननेके लिये पहले उसकी विधियों और उपकरणोंका अनुसरण कर सकना आना चाहिये । वस्तुओंके गहनतर सत्य- को देखनेके लिये आभासोंसे ही अन्धे न बन जानेकी शक्ति होनी चाहिये ।
आओ, आजकी शाम हम यह सार्थक संकल्प ले : इस वर्ष भरसक अच्छे- से-अच्छा करनेकी चेष्टा करें जिससे समय बेकार न गुजर जाय ।
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